
क़स्बा है एक, दो बसों के सफ़र दूर, पहुँचते ही जहां मैं जाया करता था बेहद रूठ
ना पहाड़, ना समुंदर, ना जंगल…बीती हैं बचपन की छुट्टियाँ करते मच्छरों से दंगल
धूल, गोबर और कूड़ा…बचते बचाते चलो नहीं तो सन जाओगे पूरा
बल्ब और पंखों की सदा थी गर्मियों की छुट्टी…कभी क़भार आ के बिजली झुंझला देती, उड़ा डालती बरसों से पटी मिट्टी
मैं लौंडा, बहन लौंडिया…अनोखी भाषा ने शब्दावली को पूरा धो दिया
दिवाली पे सिर्फ़ दियों की रोशनी…बल्ब पंखों की चल ही रही होती थी आँख मिचौनी
वक्त धीमा नहीं रुका हुआ सा लगता…दिन कभी ख़त्म ही नहीं होता दीखता
ये था क़स्बा, दो बसों के सफ़र दूर, पहुँचते ही जहां मैं जाया करता था बेहद रूठ
दूर हूँ बहुत अब उससे, हम दोनों बड़े हुए पर टूटे नहीं हमारे रिश्ते
अलौकिक थी दिवाली पे सिर्फ़ दियों की रोशनी; बीसियों घरों में जाना, करना सबसे मिलनी… उपहार में मिलें ढेरों गुजिया, मठरी, फिरनी
आज रोशनी बहुत है, पर कुल के बड़े थोड़े भी नहीं; मिठाई अनगिनत हैं, पर हाथ का स्वाद नहीं
धीमे वक्त के लिए तरस रहा हूँ आज, काश उस ट्यूबवेल में तर हो आऊँ फिर आज; अरे, सिंघाड़े का खेत भी तो था वहीं कहीं पास
अनगिनत तारों की रात की बात बताई अपनी बेटी को आज; हैरानी से कहती, क्यूँ मज़ाक़ कर रहे हो आप
भला धूल के बादल के पार दिखी है कभी साफ़ रात, अब कैसे ले जाऊँ उसे दिखाने गर्मी की वो चमचमाती रात
गुरुद्वारा मस्जिद साथ में गाते, सामने ही राम लीला के नज़ारे, लकड़ी के तीर कमान सभी बच्चे चलाते; त्योहार एकता के प्रतीक, ये अनमोल सीख सिखाते
अब शहर बना वो क़स्बा, दो बसों के सफ़र दूर; विलीन हुए जहां पूर्वज, हो गए हमेशा को दूर
ये यादें ज़िंदा रखूँ, ना जाऊँ उस क़स्बे को कभी भूल; ये यादें ज़िंदा रखूँ, ना जाऊँ उस क़स्बे को कभी भूल
यही होंगे मेरे श्रधांजलि के फूल…मेरी कृतज्ञता के फूल