सिकंदरी शहर

कोई शहर बड़ा या मशहूर कब माना जाता है? बड़ी आबादी, व्यापारिक, पर्यटन या शिक्षण
केंद्र, या फिर शायद किसी नामी हस्ती की पैदाइश की जगह? लेकिन अगर इनमें से कोई भी बात किसी शहर पर पूरी तरह लागू नहीं होती तो क्या उस शहर का भूला हुआ इतिहास उसे उसकी पहचान याद दिला सकता है? एक छोटा सा शहर, दूसरे बड़े शहर के नाम के बोझ तले कब तक अपनी पहचान खोये रखेगा?

तो ख़वातीन-ओ-हज़रात, बात उन दिनों की है जब दिल्ली की हवा इतनी साफ़ थी की 26 जनवरी, यानी गणतंत्र दिवस की शाम को मैं अपने मोती बाग़ के घर की छत से देख लेता था कि राष्ट्रपति भवन पर बिजली के बल्ब प्रज्वलित हुए हैं या नहीं, और उनके जल जाने के तुरंत बाद हम DTC के बस स्टॉप की तरफ़ चल देते थे Boat Club के लिए इससे पहले की वहाँ भीड़ हो जाए।

छत पर चढ़ कर इसीलिए देखना पड़ता था क्यूँकि दूरदर्शन की कृपा दृष्टि कब हट जाए ये कहा नहीं जा सकता था और ये अदभुत पल आप खोना नहीं चाहते थे। उन दिनों फ़िलहाल की तरह लेज़र शो नहीं हुआ करता था; साधारण लेकिन बेहद आकर्षक पीले रंगे के बल्ब लगाए जाते थे।

ये वो भी दिन थे जब गर्मियों की छुट्टी शुरू होने से पहले सरकारी नौकर LTC यानी leave travel concession ले कर, घंटों, कभी कभी दिनों तक रेल्वे आरक्षण दफ़्तर में धक्का मुक्की करके अपने परिवार के लिए थर्ड AC का टिकट ले कर आते थे। उस टिकट को घर का हर सदस्य तब तक घूरता रहता था जब तक उस पर लिखी हर जानकारी पूरी तरह से याद ना हो जाए, और उसके बाद उस टिकट को या तो बैंक की चेक बुक में नहीं तो रामायण की किताब के बीच में सम्भाल कर रख दिया जाता था। कहीं वो मुड़ ना जाए, कोई खाने का दाग़ ना लग जाए।

छुट्टियों का आगमन मतलब सबकी ज़ुबान पर एक ही बात। तुम कहाँ जा रहे हो छुट्टी मनाने? शिमला, मसूरी, बम्बई…..जी मैं सिकंदरबाद जा रहा हूँ। सिकंदरबाद….वो आंध्र प्रदेश में हैदराबाद के पास वाला? क्या बात है, बहुत दूर की सोची, कितने दिन लगेंगे पहुँचने में, टिकट करवा लिए, क्या क्या देखोगे?

ये और ऐसे कई सवाल मुझसे मेरे दोस्त स्कूल में और कोई नए पड़ोसी हमारी कॉलोनी में हर साल पूछ ही लिया करते थे। और मेरा जवाब सुनने के बाद उनके चेहरे का नज़ारा एक जैसा ही होता था…अचम्भे से भरा।

जी नहीं टिकट नहीं करायी, उसी दिन ख़रीदेंगे, तीन घंटे में ही पहुँच जाएँगे, और देखने को वहाँ ऐसा कुछ ख़ास है नहीं। क्या…ये क्या कह रह हो तुम, कुछ समझ नहीं आया…जैसे हाव भाव देखने का मैं आदी था।

कुछ क्षण के कौतूहल के बाद मैं उन्हें बताता की जनाब हिंदुस्तान में दो सिकंदरबाद हैं। एक है आंध्र प्रदेश वाला Secunderabad और दूसरा है दिल्ली से कुछ 50 किलोमीटर दूर Sikandrabad। हमारी पैदाइश उत्तर प्रदेश वाले Sikandrabad की है, हमारा पैतृक निवास है वहाँ, और हम हर छुट्टी वहीं मानते हैं।

ओ अच्छा, हमें तो पता ही नहीं था, वग़ैरह वग़ैरह जवाब भी मैं हर साल सुनता था।

ये सच है की आंध्र प्रदेश वाला Secunderabad, आंध्र प्रदेश का ही नहीं, हिंदुस्तान का भी एक बहुत बड़ा शहर है, लेकिन हमारे उत्तर प्रदेश का छोटा सा Sikandrabad भी देश के इतिहास में अपनी एक ख़ास जगह रखता है।

सबसे अहम बात ये की Sikandrabad, आंध्र के आधुनिक Secunderabad से कुछ 300 साल पहले बस चुका था। उत्तर प्रदेश के Sikandrabad को लोधी सल्तनत के दूसरे सबसे कामयाब बादशाह, सिकंदर लोधी ने 1498 में बसाया था, जबकि आँध्र प्रदेश का Secunderabad 1806 में बना एक अंग्रेज छावनी बसाने के लिए। इस शहर का नाम रखा गया सिकंदर जाह के नाम पर, जो की आसिफ़ जाही राजवंश के तीसरे निज़ाम थे।

माना जाता है कि उत्तर प्रदेश के Sikandrabad का ज़िक्र सोलविं सदी में अबुल फ़ज़ल द्वारा लिखे आइन ए अकबरी (Administration of Akbar) में भी किया गया है। Sikandrabad को दिल्ली सरकार के तहत एक परगना बताया गया है जहां से 10 लाख दाम (ताम्बे का सिक्का) से ज़्यादा का कर शाही ख़ज़ाने में जमा किया जाता था। 

Sikandrabad के कायस्थवाड़े में, मतलब वो इलाक़ा जहां कायस्थ जाति के लोग रहते हैं, और कुछ और जगहों पर आज भी आपको विशालकाय दरवाज़े दिखेंगे जिन पर महीन नक़्क़ाशी की गयी है।

लेकिन इतने बड़े दरवाज़े बनाने की ज़रूरत क्या थी? कायस्थ जाति के लोग पढ़ाई लिखाई में ज़हीन होने की वजह से राजाओं और शहंशाहों के यहाँ मुनिम की पदवियों पर काम करते थे, और कभी कभी इनाम में उन्हें हाथी घोड़े दे दिए जाते थे।

इन बड़ी सवारियों को घर में ले कर आने का एक ही ज़रिया था, और वो था बड़े दरवाज़े बना कर। कायस्थ वाड़े में एक बड़े से घर का नाम ‘बड़ा दरवाज़ा’ ही है, और वो इतना प्रसिद्ध था की कई सालों तक लोगों को रास्ता बताने का ज़रिया भी बना रहा। भैया, बड़े दरवाज़े से दो घर छोड़ कर, बड़े दरवाज़े से सीधे चले जाना…

अब Sikandrabad कई कारख़ानों का केंद्र बन गया है और नए समाज के साथ कदम मिला रहा है, लेकिन इस छोटे शहर का अपना एक लम्बा इतिहास है जिसके अब कुछ ही अवशेष रह गए हैं, और वहाँ रहने वाले लोग भी उन्हें भूल ही गए हैं। क्या पता आज कल की नाम और नाम के साथ इतिहास बदलती प्रथा में Sikandrabad शहर अपना नाम बचा पाएगा या नहीं।

ख़ैर…तो आप कहाँ जा रहे हैं इन छुट्टियों में?

Published by Gaurav

And one day, it flowed, and rescued me!

Leave a comment