नन्ही किरणों का रथ दिख रहा है, संसार फिर जीवित हो रहा है पक्षियों के कलरव ने मीठे भोर राग घोले हैं, पवन संगीतमय कर रहे हैं सूर्य अब करवट ले रहा है, फिर एक नयी सृष्टि की जैसे शुरुआत कर रहा है अंधेरे ने छोड़ा अब रण है, आशाओं का बसेरा कण कण हैContinue reading “जीवन स्तोत्र”
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जज़्बातों की पहचान
की अपने पहचानें तुम्हें, ये ज़रूरी नहीं, गूँगे ज़ख्मों को सुन पाएँ, ये ज़रूरी नहीं; की अपने पहचानें तुम्हें, ये ज़रूरी नहीं, गूँगे ज़ख्मों को सुन पाएँ, ये ज़रूरी नहीं सुकून ए ज़िंदगी की शर्तें हैं बहुत…सब पूरी हो जाएँ ये ज़रूरी नहीं आँधियों को उम्मीद थी थमने की…आँधियों को उम्मीद थी थमने की हर उम्मीद मुकम्मल हो जाए ये ज़रूरी नहीं थको मत कि उजाड़ने हैं तुम्हें कई ख़्वाब अभी…थको मत कि उजाड़ने हैं तुम्हें कई ख़्वाब अभी इस वीराने पे कोई रोए, ये ज़रूरी नहीं अरमाँ तनहा हैं साहिल पर, वक़्त का दरिया बहे जाता है; अरमाँ तनहा हैं साहिल पर, वक़्त का दरिया बहे जाता है, तैरना हर कश्ती की तक़दीर नहीं; डूबते सपनों की शिद्दत कुछ कम थी, ये ज़रूरी नहीं दुनिया के बाज़ार दरखिशां हैं बहुत, सब बिकता है यहाँ; दुनिया के बाज़ार दरखिशां हैं बहुत, सब बिकता है यहाँ, आसामियों का ताँता है, देखिए जहां तहाँ जज़्बातों की भी दुकान लगी है अंधेरे कोने में, जज़्बातों की भी दुकान लगी है अंधेरे कोने में, कोई ख़रीदार दिखता नहीं वहाँ क्या मोल है यादों के इन पुलिंदों का, क्या मोल है यादों के इन पुलिंदों का जो पहचान पाए, वो ख़रीदार ही कहाँ कौड़ियों में ले जाएगा कोई इनको, कौड़ियों में ले जाएगा कोई इनको किसी दीवाने का फ़साना समझ के खिलखिलाएगा फिर वो हर जज़्बात की क़ीमत अदा हो ये ज़रूरी नहीं, की अपने पहचानें तुम्हें, ये ज़रूरी नहीं गूँगे ज़ख्मों को सुन पाएँ, ये ज़रूरी नहीं
विश्व तीर्थ
क्यूँ कर जाऊँ मैं काशी द्वारका हरिद्वार , क्यूँ करूँ तीर्थ मैं जीवन में बस एक बार क्यूँ कर जाऊँ मैं काशी द्वारका हरिद्वार , क्यूँ करूँ तीर्थ मैं जीवन में बस एक बार विश्वास भक्ति करुणा की नित्य है पुकार; विश्वास भक्ति करुणा की नित्य है पुकार, नित्य ही कैसे तीर्थ हो आऊं औरContinue reading “विश्व तीर्थ”
मेघ कान्हा
मेघ धरा लिप्त हैं आज मिलन ऋतु की वर्षा में, झूम रहीं हैं वृक्ष गोपियाँ कान्हा के प्रेम की बरखा में मेघ धरा लिप्त हैं आज मिलन ऋतु की वर्षा में,झूम रही हैं वृक्ष गोपियाँ कान्हा के प्रेम की बरखा में तपती विरह का अंत है आज, हर रूठी गोपी कान्हा में लिप्त है आज,Continue reading “मेघ कान्हा”
अनगिनत तारों का क़स्बा
क़स्बा है एक, दो बसों के सफ़र दूर, पहुँचते ही जहां मैं जाया करता था बेहद रूठ ना पहाड़, ना समुंदर, ना जंगल…बीती हैं बचपन की छुट्टियाँ करते मच्छरों से दंगल धूल, गोबर और कूड़ा…बचते बचाते चलो नहीं तो सन जाओगे पूरा बल्ब और पंखों की सदा थी गर्मियों की छुट्टी…कभी क़भार आ के बिजलीContinue reading “अनगिनत तारों का क़स्बा”