वो मकाँ

मेरी छोटी ख़ुशियों और बड़े सहम का निगहबाँ, वो मेरी उम्र का मकाँ

किसी बचपन को फिर जवाँ करता…किनहि पलों की उम्र फिर दराज़ करता वो चुप सा मकाँ

जवाँ हसरतों और बूढ़े तवककों का गवाह वो छोटा सा, बड़ा मकाँ

अपनी सासों को रोके हुआ, वो ज़िंदा सा मकाँ

आज भी मुझे पहचानता, बड़े दरखत जैसा वो साकिन मकाँ

मुझ पर मुस्कुराता सा हुआ, मेरी यादों का वो यादगार मकाँ

मेरे नए घर को नसीहत देता हुआ, वो माँ जैसा मेरी उम्र का मकाँ

Published by Gaurav

And one day, it flowed, and rescued me!

4 thoughts on “वो मकाँ

  1. love this… ❤ मकाँ सिर्फ मकाँ तो होता नहीं न कभी। एक तक़ीद होता है कि जब मीलों दूर निकल जाओ, समन्दरों के पार, कुछ दीवारों की खुश्बूं को नींद में फिर भी पहचान लोगे 🙂

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    1. वो ख़ुशबू ही तो पहचान है मेरी, सिर्फ़ याद नहीं, धड़कन में है रची बसी…रोज़ मिलता हूँ उससे, दीवारों के परे, उसी मकाँ में…जहां एक रूह है दबी।

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